लगभग 500 वर्ष के संघर्ष के बाद अनेकों उतार-चढ़ाव देखने के बाद कई प्रकार की सत्ताओं के परिवर्तन के बाद, कई युगों के बाद और अनेकों पीढ़ियों के बाद आज वह सुखद अवसर आया है जब रामजन्म भूमि पर एक भव्य मंदिर निर्माण का विधिवत मार्ग प्रशस्त होने से मंदिर निर्माण का शुभारम्भ शुरू हो चुका है। इस मंदिर निर्माण का श्रेय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में उन कोटि-कोटि सहयोगियों और कार-सेवकों को जाता है जिन्होंने यथा समय और यथा सम्भव अपना-अपना सहयोग इस महान यज्ञ में आहूत किया आज भी कर रहे हैं और आगे भी ऐसी पुण्य आत्माएं धर्म की आहुति के लिए सामने आती रहेंगी। ऐसे महान् धर्मप्रेमी समुद्र की एक बून्द के रूप में मेरा भी सौभाग्य है कि मैं 1992 की कारसेवा में अपनी आहुति देने के लिए अयोध्या में उपस्थित था। खून की नदियों को मैंने स्वयं अपनी आंखों से देखा है। परन्तु प्रेम, वात्सल्य, दया और करूणा से भरी मेरी वैदिक संस्कृति आज मुझे इतनी प्रसन्नता का भाव प्रदान कर रही हैं कि मेरे मन में किसी विधर्मी के प्रति किसी भी प्रकार का द्वेष या क्रोध आदि कहीं नजर नहीं आ रहा। मेरा तो परमात्मा सहित समस्त जीवों और सृष्टि के कण-कण के लिए धन्यवाद ज्ञापन स्वीकार्य हो ऐसी मेरी कामना है।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम केवल एक मात्र इतिहास पुरुष नहीं हैं बल्कि यह चरित्र वास्वत में परमात्मा की अभिव्यक्ति का अनूठा उदाहरण है। सारे विश्व के लिए ढेरों-ढेरों प्रेरणाएं प्रस्तुत करता है। सर्वप्रथम हमें स्मरण होता है श्रीराम के रूप में एक पुत्र होने का दायित्व।
पुत्र के रूप में श्रीराम आज समूचे विश्व के लिए एक चारित्रिक लक्षण की प्रस्तुति करते हैं। माता-पिता की आज्ञा का पालन किस प्रकार और कितनी सीमा तक किया जाये। उस सीमा को भी लांघकर श्रीराम ने पिता की आज्ञा के पालन के लिए अपने केवल 14 वर्ष वनवास को आहूत ही नहीं की अपितु अपने जीवन की सारी सुख-सम्पदा उस छुपी हुई दैविक आदेश के प्रति समर्पित कर दिये जिसके अनुसार उन्हें समूचे साधु-सन्तों की रक्षा का दायित्व दिया जा रहा था, राक्षसी प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष का आदेश दिया जा रहा था। श्रीराम का सारा जीवन अपने पिता के संकल्प की पूर्ति से ही एक महान् दिव्य जीवन बन सका।
एक भाई के रूप में श्रीराम जिस प्रकार लक्ष्मण को एक गजब के प्रसन्नता भाव के साथ संयम और आत्म नियंत्रण का पाठ पढ़ाते हुए दिखाई देते हैं तो दूसरी तरफ भरत जैसे भाई पर भी प्रेमभरा विश्वास व्यक्त करते हुए दिखाई देते हैं।
एक राजनीतिज्ञ के रूप में श्रीराम एक ऐसी परम्परा का पथ प्रदर्शित करते हैं जिसमें राज्य का हर व्यक्ति खुले मन से अपने विचारों को साझा कर सकता है और श्रीराम रूपी राजनेता के लिए एक सामान्य गृहस्थी, अमीर-गरीब, निषाद, भीलनी, शूद्र और यहाँ तक कि भालू, बन्दर और कुत्ते में भी कोई भेद नहीं था। वे प्रत्येक प्राणी को आत्मवत् मानते थे।
एक राजा के रूप श्रीराम ने ऐसा आभास ही नहीं होने दिया कि राजा का अर्थ है लोग डर से कांपने लगे और उसकी निन्दा न कर पायें।
एक न्यायधीश श्रीराम ने यह सिद्ध कर दिखाया कि न्याय की प्रक्रिया में न लम्बी देरी थी और न अन्याय था। उनका न्याय मनुष्यांे को ही नहीं अपितु पशुओं को भी बराबर रूप से मिला। न्याय का अधिकार केवल धार्मिक और नैतिक लोगों को ही था। अनैतिक लोगों के लिए श्रीराम के मन में कोई दया नहीं देखी जा सकती।
सत्ता को ठोकर मारते हुए श्रीराम पहली बार तो अयोध्या में ही दिखाई देते हैं। जब उन्होंने पिता की विरासत को उन्हीं की रक्षा के लिए ठोकर मारने में चेहरे पर जरा सी सिकन भी नहीं आने दी। दूसरी बार रावण के वध के बाद विभीषण को राजसत्ता सौंपकर श्रीराम ने यह सिद्ध किया कि उनके पास तो सबसे बड़ी ईश्वरीय सत्ता है। जीवन कार्यों को करने के लिए राजरूपी सत्ता की आवश्यकता नहीं होती।
एक राजा के रूप में श्रीराम ने शिक्षा, स्वास्थ्य तथा स्थानीय शिल्प के साथ-साथ अधिकारी वर्ग में पूरी ईमानदारी और राजकोष के प्रति पूरी चिन्ता दिखाई। रामराज्य में किसी प्रकार की कमी का कोई स्थान ही नहीं था। उनके लिए सत्ता का अर्थ था। परमात्मा की भक्ति के रूप में कार्य करना।
आधुनिक राजनेताओं को आस्तिकता और सत्यवाद का पाठ पढ़ाते हुए श्रीराम ने भरत को अनेकों ऐसे पाठ पढ़ाये जो आज के राजनेताओं के लिए प्रशिक्षण पाठ्यक्रम बन सकते हैं। उन्होंने भरत को समझाया कि हजार मूर्खों के स्थान पर एक विद्वान् से मंत्रणा करना ही पर्याप्त है। हमें हर कार्य में अपने पूर्वजों की भांति समर्पण भाव बनाये रखना चाहिए। यहाँ तक कि कर्मचारियों को समय पर वेतन देने की बात भी इस प्रशिक्षण वार्तालाप में दिखाई देती है। राजा को परमार्थ का कार्य अवश्य ही करना चाहिए। प्रजा तो स्वभाव से ही अपने-अपने कार्यों में लगी होती है, राजा का दायित्व है कि सारी प्रजा को शांति और सुरक्षा प्रदान करे। इसी से राज्य का विकास सुनिश्चित किया जा सकता है। पशुओं की सुरक्षा भी राजा का दायित्व है। राजा को अधिक से अधिक समय जनता के बीच में बिताना चाहिए। राज व्यवस्था की आय अधिक और व्यय कम होना चाहिए। राजा को निर्धन लोगों का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
एक बानर से प्रथम भेंट पर उसके गुणों को पहचानकर उसे सम्मान देते हुए श्रीराम यह सिद्ध कर देते हैं कि हनुमान जैसी विद्वता और विनम्रता का सदा सम्मान होना चाहिए। बेशक कोई स्वरूप में किसी भी रंग, नस्ल और बेशक बानर रूप ही क्यों न हो।
नारी शक्ति का सम्मान करते हुए श्रीराम अहिल्या सिद्धान्त के रूप में दिखाई देते हैं तो वहीं ताड़का और सूर्पनखा को दण्डित करते हुए भी दिखाई देते हैं।
शराणार्थी के प्रति परम उदारता दिखाते हुए श्रीराम ने विभीषण को न केवल अभय दान दिया अपितु उसके अपने अधिकार की सत्ता का इनाम भी दिया।
राजसत्ता में संतों से मंत्रणा करते हुए श्रीराम ने यह सिद्ध कर दिया कि अनेकों विद्वानों से भी ऊपर है विरक्त संतों और महात्माओं के विचार, क्योंकि उनके किसी भी प्रकार के व्यक्तिगत विचारों की संभावना नहीं होती। वे परमात्म स्वरूप होते हैं।
श्रीराम का जीवन यह प्रेरित करता है कि हमारा जीवन भी ऐसा होना चाहिए जिसकी विपक्षी लोग भी प्रशंसा किया करें।
कर्मफल के सिद्धान्त का उत्तम उदाहरण प्रस्तुत करते हुए श्रीराम का जीवन यह सिद्ध करता है कि हमें हर परिस्थिति में केवल धैर्य का ही आश्रय लेना चाहिए। क्योंकि हर परिस्थिति हमारे अपने कर्मों का ही फल होती है।
सूर्य की किरणों के रूप में श्रीराम समूचे जगत के दोषों पर ध्यान नहीं रखते थे। वे तो अपने प्रकाश से सब दोषों को समाप्त करने निकले थे। रामरूपी सूर्य की प्रथम किरणें तो मीठे वचन ही थे।
श्रीराम मंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त होने के बाद अब केवल सरकार का ही नहीं अपितु समूचे भारतवासियों और भारत प्रेमियों का यह दायित्व है कि सारी धरती पर श्रीराम की प्रेरणाओं को सूर्य की किरणों की तरह फैला दिया जाये। राम मंदिर के साथ-साथ अब वास्तव में रामराज्य का प्रयास प्रारम्भ होना चाहिए जिसमें भारत का हर नागरिक एक कारसेवक की तरह अपनी-अपनी भूमिका को समझें। मेरा सौभाग्य होगा कि कारसेवक की तरह रामराज्य के कारसेवक के रूप में भी परमपिता परमात्मा मेरी उपस्थिति और मेरी सेवाओें को स्वीकार करे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से निवेदन है कि 22 जनवरी को रामराज्य दिवस के रूप में घोषित करें।