-वीरेन्द्र विश्वकर्मा-
किसकी हार हो रही है और कौन जीत रहा है,इसका अंदाजा लगाना बेहद कठिन है। हर रोज सियासी हवा बदलती है,कभी लगता है कि भाजपा मजबूत है तो कभी अहसास होता है कि कांग्रेस सरकार बना रही है। कभी अंदाजा लगाया जाता है कि इस बार त्रिशंकु विधानसभा बनेगी। ऐसे ही तमाम कयासों के बीच जब चुनावी परिणाम आते हैं तो सबकुछ उल्टा पुल्टा दिखाई देने लगता है। वजह ये है कि आम मतदाता खामोस रहता है और राजनीति से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े लोग ही अपने पक्ष में माहौल बनाने की असफल कोशिश करते नजर आते हैं। इस बार भी कुछ इसी तरह का माहौल बनाने की कोशिशें होती नजर आने लगीं है।
पिछले कुछ चुनावों पर नजर डालें तो कई उदाहरण है। पहला 2003 में हुए विधानसभा चुनाव का उदाहरण है। इस वक्त मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ और राजस्थान में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजों को देखें तो तीनों राज्यों में भाजपा को बड़ी जीत हासिल हुई और सत्ता में आ गई। इससे गदगद केंद्र की वाजपेयी सरकार ने सत्ता बरकरार रखने के लिए समय पूर्व ही आम चुनाव कराने का दांव चल दिया। नतीजा ये हुआ कि उपरोक्त राज्यों से भाजपा ने 56 लोकसभा सीटें जीतीं लेकिन केंद्र में सत्ता से हाथ धोना पड़ा। इसका मतलब ये हुआ कि जरूरी नहीं है कि विधानसभा में मिली जीत लोकसभा चुनाव में बरकरार रहे।
एक और उदाहरण 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में देखने को मिला। उस वक्त केंद्र में भाजपा की नरेंद्र मोदी सरकार थी,मोदी लहर चरम पर थी,इसके बाद भी भारतीय जनता पार्टी ने मध्य प्रदेश,छत्तीसगढ और राजस्थान में अपनी सरकार गंवा दी। हालांकि राजस्थान अपवाद हो सकता है क्योंकि यहां हर पांच साल में सत्ता का परिवर्तन सुनिश्चित माना जाता है। इसके बाद भाजपा विरोधी दलों का हौंसला बढ़ा और केंद्र में सत्ता हासिल करने की हसरत लेकर विरोधी दल अति उत्साहित होते नजर आए। इसी उत्साह के चलते वर्ष 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में एनडीए विरोधी दलों ने पूरी ताकत झौंकी और दावे किए कि उनकी केंद्र में सरकार बनना लगभग तय है। जब लोकसभा चुनाव के परिणाम आए तो भाजपा विरोधियों को तगड़ा झटका लगा। हुआ ये कि विधानसभा चुनाव में हारी भाजपा ने लोकसभा चुनाव में तीनों ही राज्यों में करीब करीब क्लीन स्वीप कर पहले से भी बड़ी जीत हासिल कर ली।
इसी तरह राजस्थान को छोड़ दें तो साल 2008 के विधानसभा चुनाव परिणाम ने भी पुराना इतिहास दोहरा दिया। उस वक्त भाजपा ने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की सत्ता बरकरार रखी, लेकिन राजस्थान की सत्ता से हाथ धोना पड़ा। इसके बाद भी केंद्र में कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार न सिर्फ सत्ता बचाने में सफल रही, बल्कि उसके लोकसभा सीटों की संख्या 148 से बढ़कर 206 हो गई। हालांकि इन तमाम तथ्यों के बीच कुछ अपवाद नजरअंदाज नहीं किए जा सकते। साल 2013 के विधानसभा और 2014 के लोकसभा के नतीजे अपवाद ही साबित हुए। बीते चार चुनाव में पहली बार ऐसा हुआ कि इन तीनों राज्यों में विधानसभा चुनाव में जीतने वाली पार्टी केंद्र की सत्ता पर भी काबिज हुई। भाजपा ने तीनों राज्यों के साथ आम चुनाव में भी जीत हासिल की।
5 राज्यों के विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान कर दिया गया है। चुनाव आयोग के मुताबिक मिजोरम में 7 नवंबर को वोट डाले जाएंगे। छत्तीसगढ़ में 7 एवं 17 नवंबर को मतदान होगा। जबकि मध्य प्रदेश में 17 और राजस्थान में 23 तथा तेलंगाना में 30 नवंबर को वोट डाले जाएंगे। पांचों ही राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे 3 दिसंबर को घोषित किए जाएंगे। इसके कुछ ही महीने बाद 2024 में लोकसभा चुनाव होना है। शायद यही कारण है कि पांचों राज्यों के विधानसभा चुनाव को लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा है। ये बात सही है कि विधानसभा चुनाव के नतीजे लोकसभा चुनाव को प्रभावित करते है,लेकिन नफा नुकसान का सटीक पूर्वानुमान लगाना आसान नहीं है। फिलहाल पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे लेकिन उत्तर भारत के प्रमुख राज्य मप्र,राजस्थान और छत्तीसगढ़ की बात करें तो इन राज्यों में कुल 65 लोकसभा सीटें है। जिसमें मप्र में 29,राजस्थान में 25,छत्तीसगढ़ में 11 लोकसभा सीटें हैं। जिसमें से राजस्थान को अपवाद की श्रेणी में रखा जाता है क्योंकि यहां के मतदाताओं को मत पलटता रहता है। राजनीति के जानकारों की राय और सियासी चर्चाओं को आधार माना जो तो विधानसभा चुनाव को लोकसभा का सेमिफाइनल पूरी तरह नहीं माना जा सकता है,क्योंकि आज का मतदाता पल पल में अपना मत बदलता है,विधानसभा चुनाव के लिए कुछ और लोकसभा के लिए मन में कुछ अलग ही रखता है। ऐसे में कैसे मान लें कि विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव का सेमिफाइनल है।