महाराष्ट्र और झारखंड विधान सभाओं के लिए हुए चुनावों के नतीजे आ चुके हैं। अब दोनों राज्यों में नई सरकारों का गठन भी हो गया है। झारखंड और महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री और कुछ मंत्रियों ने शपथ भी ले ली है। महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव में 65 फीसद से अधिक मतदान हुआ है, जो पिछले 30 वर्षों में सबसे अधिक है। यह दो कारणों से उल्लेखनीय है: पहला, यह 2024 के लोकसभा चुनाव के आंकड़े से लगभग चार प्रतिशत की वृद्धि दर्शाता है; और दूसरा, यह चुनावों में औसत राष्ट्रीय मतदान के करीब है, जो लगभग 65-66% आंका गया है।
लेकिन, प्रश्न यह उठता है कि क्या मतदान का यह प्रतिशत क्या किसी भी मजबूत लोकतंत्र के लिये पर्याप्त है? बिल्कुल नहीं! तो फिर किया क्या जाये! पर यह तो पूरे तो पूरे देश के सभी जिम्मेदार नागरिकों को यह सोचना ही होगा कि चुनावों में मतदान को कैसे बढ़ाया जा सकता है। यह गंभीर मसला है। जैसा कि मैंने ऊपर कहा है कि महाराष्ट्र विधान सभा के लिए हुए चुनाव में 65 फीसद से अधिक मतदान हुआ है, जो पिछले 30 वर्षों में सबसे अधिक है। यह दो कारणों से उल्लेखनीय है: पहला, यह 2024 के लोकसभा चुनाव के आंकड़े से लगभग चार प्रतिशत की वृद्धि दर्शाता है और दूसरा यह चुनावों में औसत राष्ट्रीय मतदान के करीब है, जो लगभग 65-66% आंका गया है। महाराष्ट्र के आंकड़ों पर इसलिए गौर किया जाता है क्योंकि राज्य में देश की सबसे बड़ी शहरी आबादी है, और ऐतिहासिक रूप से यह शहरों और कस्बों में कम मतदान के कारण औसत राष्ट्रीय मतदान से पीछे रहा है।
हालांकि, सकारात्मक पहलू यह है कि पूरे राज्य में मतदान में समग्र सुधार हुआ है। इस बदलाव का श्रेय, हालांकि अपेक्षाकृत धीमा और क्रमिक है, इसका मुख्य रूप से श्रेय भारत के वर्तमान चुनाव आयोग को जाता है। मतदान बढ़ाने के लिए चुनाव आयोग इस बार काफी सक्रिय था। इसके अभियान में, सोशल मीडिया सहित, स्थानीय हस्तियों – क्रिकेटरों से लेकर फिल्म सितारों तक को भी शामिल किया गया है, और इसमें ऊँची इमारतों और आवासीय सोसायटियों में मतदान केंद्र स्थापित करना और कतार में लगने के समय को कम करने के लिए टोकन प्रणाली शामिल है। राजनीतिक दलों के उच्च-वोल्टेज अभियानों ने भी मतदाता भागीदारी बढ़ाने में मदद की है। महाराष्ट्र में बेहतर मतदान भारतीय लोकतंत्र के लिए आश्वस्त करने वाला है।
चुनावों के पहले तीन दशकों में, शहरी मतदाताओं की भागीदारी काफी बेहतर रहती थी। 1980 के दशक से शहरी और ग्रामीण मतदान के बीच का अंतर बढ़ गया है। शहरी उदासीनता को समझना होगा। शहरी भारत का जीडीपी में 60% और करों में बहुत बड़ा हिस्सा है। पर हमारे यहां के शहरों की हालत लगातार खराब हो रही है। पहले से ही सक्रिय, चुनाव आयोग को अधिक से अधिक मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए, मतदान केंद्रों को अधिक सुलभ और आकर्षक बनाना होगा। इसमें पर्याप्त पार्किंग और आरामदायक प्रतीक्षा क्षेत्र जैसे सुधार शामिल हो सकते हैं। दिव्यांग मतदाताओं को उनके घर में ही वोट देने की सुविधा दी जा सकती है। फिलहाल तो दिव्यांग जनों को मतदान केन्द्रों में काफी कष्ट होता है। इस तरफ गंभीरता से सोचना होगा। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि पंचायत, नगरपालिका, विधान सभा और लोकसभा चुनावों में मतदान को बढ़ाने की जिम्मेदारी सिर्फ चुनाव आयोग की ही नहीं है। इस दिशा में कई स्तरों पर काम करना जरूरी है।