ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने॥
प्रणत: क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नम:॥
मंगल ग्रह की ज़मीन खोद दी। चन्द्रमा पर सैर हो गयी। ब्रह्मांड के रहस्य से पर्दा उठा दिया।सृष्टि की उत्पत्ति के जाल को सुलझा लिया।सम्पूर्ण पृथ्वी को चंद घंटो में नाप लिया।अंतरिक्ष और पाताल दोनों तक पहुँच गए। धन्य है विज्ञान – धन्य है ऐसे जिज्ञासु – धन्य है ऐसे आत्ममुग्ध लोग। इस सारे ज्ञान से मानवता – प्रकृति को क्या मिला ? यह विज्ञान नहीं अज्ञान है जो मानवता को विनाश के कगार पर ला कर खड़ा कर दिया है। विनाशकारी हथियारों के अहंकार में युद्धोन्मादी बन प्रकृति से तो खिलवाड़ कर ही रहा है , जल थल नभ के बाद अंतरिक्ष पर भी अधिकार जमा रहा है। निहित स्वार्थ एवं विस्तारवादी प्रवृति वश सम्पूर्ण सभ्यता और जीव मात्र को नष्ट करने पर आमादा है। मुग्ध आधुनिक वैज्ञानिक प्रकृति के स्वभाव-पृथ्वी के धैर्य की सीमा को जान लेते , सुलझा लेते प्रकृति और जीवों के सम्बन्ध के रहस्य को , खोज लेते भूख के लिए ज़िम्मेदार तत्व को, खोज सकते मानव जीवन के उद्देश्य को, संतुष्टि- परस्पर विश्वास और त्याग की भावना को जाग्रत करने के उपाय। मिसाइल रोकने के लिए कवच तो बना लिए – क्या बना सके आपदा/ महामारी / भूकम्प / सुनामी से बचने के लिए कवच? सब समझ कर भी शांत है , उसी दौड़ में शामिल है की यदि मैंने सत्य का आइना देख लिया तो कहीं पिछड़ ना जाऊँ , इस माया रूपी विकास की दौड़ में । दौड़ भी ऐसी जिसकी मंज़िल विनाश ही है । विनाश की इस दौड़ में सभी दूसरों को चेता रहे है , रोकने का प्रयास कर रहे हैं किंतु स्वमं पूरी ताक़त से दौड़ रहे हैं। कितने आत्ममुग्ध हैं हम भौतिक अविष्कारों से , क्षणिक सुख से , माया-अविद्या से । जिसने मानव मात्र को अपना आश्रित बना ऐसे मोड़ पर खड़ा कर दिया है जहां वह मात्र लाचार – बेचारा – असहाय – बेबस खड़ा है। मध्य काल में पूरे यूरोप का शासक रोम ( इटली )की भीषण संकट में है , मध्य पूर्व को अपने कदमो से रौंदने बाली उस्मानी सलतनत( ईरान -टर्की ) असहाय दिख रही है, जिसने आधे विश्व को ग़ुलाम बवना कर रखा उसी ब्रिटेन में हाहाकार मचा है – शासकों और प्रजा दोनों की जान के लाले पड़े हैं ,रूस के बॉर्डर सील हैं , महाशक्ति अमेरिका में करफ़्यू /लॉक डाउन हैं , लाखों लोग इस महामारी से त्रस्त है, जो चीन पहाड़ों को भी हिलाने का दम्भ भरता था, कोरोना महामारी का जनक निकला, आज सारे विश्व से आलोचना सुन रहा है। प्रकृति के इस प्रकोप से आज अछूता कोई देश नहीं है। यह घोर चिंता और चिन्तन का विषय है।
एक सूक्ष्म से परजीवी ने विश्व को स्थिर कर रख दिया।क्या यही थी आधुनिक विज्ञान की उपलब्धि ? क्या यही है वर्षों की मेहनत का अर्जन ? एक अदृश्य से जीवाणु ने जल थल नभ सारे मार्ग रोक दीये, सारे मेला तमाशे सिनेमा वीरान कर दिये। जिन सुख सुविधाओं के लिए अथक प्रयास किए आज सब व्यर्थ दिख रहे हैं । यह विचार का समय है , सत्य के साक्षात्कार का समय है , प्रकृति के संदेश को समझने का समय है। ऐसे स्वार्थ परक विज्ञान और अनुसंधान का अँतोगत्वा का मानवता के लिए क्या औचित्य जो अपने को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिये ही हैं। प्राकृतिक सम्पदा को नष्ट कर समृद्ध मानव जीवन की कल्पना मात्र छलावा है – भ्रम है। भोजन एवं भोगों के लिये प्रकृति से खिलवाड़ सम्पूर्ण मानवता के प्रति अपराध मात्र है। सर्वश्रेष्ठ सिध्द करने की होड़ और अहंकार ने अनेकों सभ्यताओं को या तो नष्ट कर दिया या नष्ट प्रायः।
परमाणु युद्ध के साये में निरंतर जीने को विवश भयभीत मानवता , नित्य नयी बीमारियों का जन्म , स्वार्थ , अहंकार से त्रस्त द्रवित मानवता और थोथी प्रगति , क्या यही है हमारी उपलब्धियाँ ? मधु कैटव -महिषासुर – रक्तबीज का वध भगवती ने त्रेतायुग में कर दिया था।
आज मधु कैटव ( मीठा तीता ) भोजन और भोगों , महिषासुर ( अहंकार ) अपने को शक्तिशाली- अजेय सुपर पावर के दम्भ एवं बनने की होड़ में ,रक्तबीज ( इच्छायें ) हमारे स्वार्थ – मह्त्वाकांक्षाओं रूप में आज भी उपस्थित है, एक पूरी हुई नहीं की सहस्र नयी उत्पन्न । महामारीयों का स्वरूप एवं विकरालता रक्तबीज का पुनरागमन ही है। इसका पुनः पुनः पुनर्जन्म हमारे जीवन में उपस्थित मधु कैटव रूपी भोगों-भोजन के प्रति आसक्ति एवं महिषासुर रूपी अहंकार ही है ।
जो सनातन धर्म की भावना “ संतुष्टि परमो धर्म: “ के सर्वदा विपरीत ही है।
आज यदि मानवता को पुनः शाश्वत सनातन स्वरूप में स्थापित करना है एवं रक्तबीज रूपी महामारियों को रोकना है तो सनातन धर्म के मूल सूत्र वसुधैव कुटुम्बकम् – परोपकार: पुण्याय पापाय परपीडनम् , आदि अनेकानेक सूत्रों को आत्मसात् करना ही होगा। यह भी ध्यानपूर्वक समझना होगा की प्रकृति एवं सनातन धर्म के अनुकूल आचरण से ही सम्पूर्ण एवं सर्वांगीण विकास सम्भव है। इसके लिये पुनः भारतवर्ष के गौरवशाली परम्पराओं एवं इतिहास को खंगालना होगा। सनातन धर्मावलम्बी भारत वर्ष को आक्रांताओं ने मात्र लूटा नहीं अपितु हमारी संस्कृति , परम्पराओं , प्राचीन धर्म ग्रंथों , धर्म -संस्कृति के जीवन्त स्वरूप मन्दिरों आदि को भी निर्दयता से तहस नहस किया।
यदि स्वर्ण आदि की अभिलाषा में भिक्षुक बन कर आक्रांता आए होते तो राजा बली, कर्ण , राजा भोज आदि महादानीयों की भूमि से भिक्षा में भी ले जा सकते थे किन्तु अज्ञानी अहंकारी आक्रांताओं का भाव तो संस्कृति पर हमला था , बन्दर अदरक के स्वाद को नहीं पहचान सका तो पौधशाला ही उजाड़ दी । यदि मानव मात्र को इस धरा का सच्चा आनंद लेना है तो सनातन धर्म की ओर उन्मुख होना ही होगा ।तक्षशिला के खंडहरो में , नालंदा के समृद्ध साहित्य की राख में , शैव तंत्र पीठ शारदा के अवशेषों में , मार्तण्डय की विध्वंशित शिलाओं , काशी के शाश्वत ज्ञान में , में जीवन के रहस्य विनीत याचक बन खोजने होंगे। आज सम्पूर्ण विश्व सनातन परम्पराओं की ओर देख रहा है , देर सवेर बचे खुचे भ्रमित जन को भी यदि सुखी जीवन जीना है तो सुमार्ग पर आना ही होगा।
-सुप्रसिद्ध आध्यात्मिक चिंतक और श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान के सचिव कपिल शर्मा के सुविचार