नदी का प्रवाह निरंतर समुद्र की ओर ही होता है ठीक इसी प्रकार से परमात्मा के अंश जीव का प्रवाह भी अपने परम पिता परमात्मा की ओर ही निरंतर होता है। नदी अपने मार्ग की कठिनाइयों को सहन करते हुए, ऊंचे-नीचे पथरीले मार्गों के कष्ट को सहती हुई, अपने मार्गों को बदलती हुई कभी भी अपना प्रवाह बंद नहीं करती समुद्र में विलीन हो जाने के पश्चात् ही उसको विश्राम मिलता है। ठीक उसी प्रकार से जीव चाहे जितना भी माया के जगत में भटक ले उसकी आनंद की खोज कभी बंद नहीं होती। भौतिक जगत में उसका भटकाव आनंद की खोज हेतु ही है। वह किसी भी प्रकार से आनंद प्राप्त करके विश्राम पाना चाहता है।
अज्ञान के कारण
अज्ञान के कारण जीवन आनंद की खोज भौतिक जगत में कर रहा है। उसने कभी माना ही नहीं कि सुख तो आनंद कंद भगवान में ही है। आनंद माया के जगत में नहीं है। यदि वह यह बात हृदय से स्वीकार कर ले कि आनंद केवल भगवान के दिव्य जगत में ही है तो श्रद्धापूर्वक अपनी साधना में जुट जाये और दिव्य चिन्मय आनंद को प्राप्त करके विश्रामावस्था को पास के जीव का नित्य प्रवाह तो आनंद की ओर ही है लेकिन उचित मार्ग प्राप्त न होने के कारण अभी तक आनंद की प्राप्ति नहीं हुई। मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी त्रुटि यही है। जिसके परिणामस्वरूप वह भिन्न-भिन्न प्रकार के कष्टों को भोग रहा है। संसार में आकर वह माया संबंधी कार्यों को करता है। सांसारिक विषयों को भोगता है। रोगी, भोगी का जीवन बिताकर संसार से विदा हो जाता है। अपने कर्मों का भोग करने के लिये पुनः इस जगत में जन्म लेता है। आवागमन के चक्कर से मुक्त नहीं हो पा रहा। माया के जगत में आनंद खोजने के कारण ही बंधन का कारण बना हुआ है। सांसारिक जड़ वस्तुओं ने मनुष्य को पकड़ा हुआ है, यह पकड़ इतनी गहरी हो चुकी है कि सुगमता से छूटती ही नहीं। केवल जड़ वस्तुओं की ही पकड़ नहीं चेतन शरीर वाले शारीरिक संबंधी भी उसको भ्रमित कर रहे हैं। संबंधियों को ही वह अपना सगा संबंधी मानने के कारण ही भगवान के सामने पीठ करके बैठा है।
हर जन्म में मनुष्य ने भौतिक पदार्थों, अपने संबंधियों में ही सुख का चिंतन किया है। इसलिए उनके मोह में फंस गया है। मोह में आबद्ध मनुष्य उसके पाने की इच्छा भी होती है। जब इच्छापूर्ति होती है तो लोभ बढ़ता है। यदि इच्छापूर्ति नहीं होती तो क्रोध आता है। क्रोध में बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और मनुष्य विनाश को प्राप्त करता है।
क्रोधात् भवति संमोहः संमोहास्मृतिविभ्रमः।
स्मृति भ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।
गीता- 2-63
अनादि काल से सभी वेद शास्त्र एक ही स्वर में यही कह रहे हैं कि संसार में सुख नहीं है। मनुष्यों तुम सच्चे सुख की खोज करो। अपने भीतर बैठी आत्मा को परमात्मा में मिलाओ तभी तुम्हारा कल्याण हो सकता है। मनुष्य का सबसे बड़ा स्वार्थ तो परमात्मा की प्राप्ति ही होना चाहिए। लेकिन वह स्व को आत्मा नहीं शरीर समझ बैठा है। इसलिए शरीर से स्वार्थ सिद्ध करने में लगा हुआ है। शरीर का स्वार्थ तो संसार के विषयों से ही सिद्ध होता है, अतः मनुष्य विषय वासना में ही उलझ कर रह गया है। इससे बड़ी भूल और क्या हो सकती है?
पूर्णता के लिए
जीवन की पूर्णता के लिये भगवान तथा संसार दोनों ही आवश्यक हैं। मनुष्य जीवन में दोनों का समन्वय करना सीख जाना ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। जीवन में जितनी आवश्यक आंख है उतना ही आवश्यक प्रकाश भी है। प्रकाश होने पर ही आंख भी देख पाने में सक्षम होगी। अंधेरे में तो स्वस्थ आंखों को भी कुछ नहीं दिखाई देता है। उसी प्रकार भौतिक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये संसार का होना भी अनिवार्य है। ताकि मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताएं पूर्ण होती रहें। शरीर से मनुष्य स्वस्थ रह सके और साधना के मार्ग पर विकास करके असीम आनंद पा सके। अतः संसार निंदनीय नहीं है। सोचिए यदि संसार न होता, वायु, जल इत्यादि न होते तो मनुष्य का जीवन कैसे संभव होता? भगवान के किसी भी कार्य में कभी कोई भूल चूक नहीं होती। मनुष्य ही अल्प बुद्धि है जो इस दिव्य गणित को नहीं समझ पा रहा।
भौतिक सदी मानते हैं कि संसार में आये हो तो खाओ, पिओ और मोज करो। ऋणं कृत्वा घृतं विवेत्। भगवान की कल्पना विकृत मस्तिष्क की उपज है। वैज्ञानिक भी अभी तक आत्मा और भगवान को नहीं समझ पाये। भगवान कोई भौतिक तत्व तो है नहीं जिसे प्रयोगशाला में जांचा जाये, बोतल में बंद करके निरीक्षण किया जाये। परमात्मा एक अनुभव में आने वाली चेतना सत्ता है जो मनुष्य की बुद्धि से परे है। अतः मनुष्य आंख मूंद कर स्वीकार कर ले कि शास्त्रों और महापुरुषों की बात सत्य है मुझे उनके बताये हुए मार्ग पर ही चलना है। तभी अंशी का प्रवाह अंश की ओर हो सकता है। लोग इस भ्रम में भी रहते हैं कि आनंद भौतिक जगत में ही है। अभी आनंद नहीं मिला तो क्या हुआ भविष्य में प्राप्त होगा। जीवन में सात्विक गुणों तथा दिव्य गुणों को धारण किये बिना अंश अपने अंशी से नहीं मिल सकता। जब तक मिल नहीं जाता तब तक विश्राम भी प्राप्त नहीं हो सकता।
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