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Home धर्म

मानव जीवन में संयम अनिवार्य

Rajpath Mathura by Rajpath Mathura
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मनुष्य दोहरी प्रकृति का प्राणी है। एक पशु प्रवृत्ति है जो अपनी सहज प्रवृत्तियां, आवेगों इच्छाओं एवं स्वचालित प्रेरणाओं के अनुसार जीवन-यापन करती है, दूसरी एक अति जागरूक बौध्दिक नैतिक, सौन्दर्यात्मक, विवेकपूर्ण और गतिशील प्रकृति है। एक ओर ऐसा चिंतन-मनन है जो निम्न प्रकृति का परिशोधन चाहता है तो दूसरी ओर ऐसा संकल्प है जो देवत्व को जीवन में उतारने के लिए हुलसाता है। अच्छे-बुरे चिंतन और कर्म का परिणाम पाना अपने पर निर्भर करता है। व्यक्ति अनुपयुक्त विचारों को छोड़कर तथा विवेक और संयमशीलता को अपनाकर अपनी गतिविधियों में उत्कृष्टता का समावेश कर सकता है।
विवेक का अभाव
आज व्यक्ति ने अपना वर्तमान और भविष्य अंधकारमय बना रखा है। उसका एक ही कारण है विवेक का अभाव। मकड़ी अपना जाला स्वयं बनाती है, स्वयं ही उसमें फंसती है, परन्तु जब वह स्वतंत्र होना चाहती है तो जाले तो निगलकर स्वतंत्रता का अनुभव करने लगती है। व्यक्ति यह क्यों नहीं समझा पा रहा है कि यह जाल उसके चारों ओर उसका ही निर्मित किया हुआ है और स्वयं ही इससे छूट भी सकता है। कोई भी व्यक्ति साधना, पुरुषार्थ में प्रवृत्त होने पर सिध्द पुरुष, महामानव की स्थिति प्राप्त कर सकता है। मानव जीवन कई जन्मों के पुण्यों का प्रतिफल है। मनुष्य शरीर ही आत्मा का मंदिर है। शरीर में परमात्मा स्वयं ज्योतिस्वरूप में विराजमान हैं। ईश्वर का राजकुमार मनुष्य ही है, पर वह उस पिता को भूला हुआ है। मानव शरीर प्राप्त करने के लिए तो देवता भी लालायित रहते हैं। समस्त भारतीय साहित्य में अंतरात्मा को ब्रह्म कहकर इसके महत्व को प्रतिपादित किया है। दुर्भाग्यवश मनुष्य इस बात को भूल ही गया है। जीवन ही प्रत्यक्ष देखता है। इसकी ही सेवा उपासना सुसंस्कृत और सुदृढ़ बनाकर इसी जीवन में करनी चाहिए। आज व्यक्ति ने असंयमित जीवन अपनाकर अपना सब कुछ खो दिया है। मनुष्य ने नासमझी में सदैव अपनी मानसिक, शारीरिक शक्तियां एवं सम्पदाओं का अनावश्यक रूप से अपव्यय किया है। यदि व्यक्ति चाहे तो संयम अपनाकर परमात्मा के राजकुमार जैसी जीवन जी सकता है।
संयमशीलता व कर्त्तव्य परायणता
संयमशील होना तथा कर्त्तव्य परायण होना दोनों ही जीवन के अनिवार्य अंग हैं। व्यक्ति अपने आंतरिक अमृत को असंयम द्वारा निरंतर गंवाकर झूठ की भांति रह जाने पर अपने दुर्भाग्य का रोना रोता रहता है। असंयमी व्यक्ति निरंतर पतनोन्मुख होकर किस प्रकार दुर्गति को प्राप्त होता है। यह व्यक्ति पर निर्भर है कि वह किस प्रकार उन्हें नियंत्रित करे। पूर्णरूपेण असंयम को तुरन्त छोड़ना संभव न हो तो भी अपने आप को हटाते अवश्य चलना चाहिए। आज की अपेक्षा कल वह असंयम घटे-बढ़े नहीं। संयम को सरलता के लिए चार भागों में बांटा गया है। 1. इन्द्रिय संयम 2. समय संयम, 3. विचार संयम, 4. साधन (अर्थ) संयम। जीवन देवता के माध्यम से ईश्वर ने मनुष्य को इन्द्रिय शक्ति, समय शक्ति एवं विचार शक्ति की अनुपम सम्पदा प्रदान की है। साधन (अर्थ) शक्ति इन तीनों के संयुक्त प्रयास से पुरुषार्थ द्वारा अर्जित की जा सकती है, जो व्यक्ति इनमें से किसी एक की भी अवहेलना करता है, वही आंसू बहाता है।
इन्द्रिय संयमः इन्द्रियों का संयम ही मानव जीवन में सबसे अधिक आवश्यक है। इन्द्रियों पर यदि अंकुश नहीं है तो व्यक्ति का पतन और दुर्गति अवश्य होती है। विशेष रूप से जिव्हा तथा जननेन्द्रिय को वश में करना आवश्यक है।
जिव्हा के दो कार्य हैं- एक रसास्वादन करना, दूसरा वार्तालाप करना। ये दोनों ही कार्य महत्वपूर्ण हैं। स्वास्थ्य का नष्ट होना, पारिवारिक कलह तथा झगड़ों का मूल कारण जिव्हा का असंयम होनी ही होता है। वाणी से व्यक्ति किसी को मित्र व शत्रु बना सकता है। कहते हैं तलवार का घाव तो भर जाता है, परन्तु कटु वाणी का घाव जीवन भर नहीं भरता। कटु वाणी का घाव जीवन भर नहीं भरता। कटु वचन असहनीय होते हैं।
समय संयमः समय के संयम से ही मनुष्य महत्वपूर्ण सुखी जीवन व्यतीत कर सकता है। इसमें थोड़ी-सी शिथिलता भी व्यक्ति को प्रमादी बना डालती है। जीवन में सार्थकता इसी में है कि जीवन का एक क्षण भी व्यर्थ न जाए।
विचार संयमः व्यक्ति विचारों को ही कार्यरूप में परिणित करता है। जो कुछ व्यक्ति सोचता है वैसा ही करता है और वैसी ही बन जाता है। विचारों की अस्वच्छता से उत्तेजना, असहिष्णुता, निष्ठुरता की पैशाचिक प्रवृत्तियां पनपती हैं, उन्हीं के कारण मनुष्य नर पिशाच तक बन जाता है। विचारों को संयमित करके व्यक्ति लौकिक और आंतरिक जगत में आनन्द और लाभ ले सकता है। विचारों के असंयम से ही मन, समय एवं धन का अपव्यय आरम्भ होता है।
साधन (अर्थ) संयमः भौतिक जगत हो चाहे आत्मिक किसी भी क्षेत्र में मनुष्य को अपव्यय की छूट नहीं है। धन की सार्थकता नेकी की कमाई में है और दूसरों के हित में अपने साधन लगाने में है। धन का अपव्यय या दुरुपयोग करना लक्ष्मी का साक्षात् अपमान है। अत्यधिक संचय अपव्यय सिखाता है। इसी से आडम्बर युक्त प्रदर्शन, फैशनपरस्ती, विवाहों में अनावश्यक व्यय किया जाता है। जुआ, मदिरा जैसे व्यसन घरों में पनपते हैं।
कर्त्तव्य परायणताः उच्च उद्देश्यों जुड़े कर्त्तव्य पालन का नाम ही कर्मयोग है। मनुष्य और पशु में ईश्वर ने यही अंतर किया कि कर्त्तव्य और्र अकत्तव्य में भेद करने की क्षमता मनुष्य को दी है पशु को नहीं, परन्तु अभागा मनुष्य अपने शरीर को निरोगी, मन संतुलित और चरित्र को उज्ज्वल रखने का दायित्व भी ठीक से नहीं निभा पाता।
दुष्प्रवृत्तियों पर नियंत्रण
संयमित और कर्त्तव्यपरायणता जीवन सुलभ और आनन्ददायक भी है। कर्त्तव्य पालन से पहले व्यक्ति को संयमी बनना पड़ता है। असंयमित जीवन-यापन करने वाले तिरस्कार और भर्त्सना के पात्र बनते हैं। कोई-कोई असफल होने पर ही श्रध्दा के पात्र होते हैं। केवल संयमशीलता एवं कर्त्तव्यपरायणता उन्हें यह स्थान दिलाती हैं। लक्ष्मीबाई, तात्याटोपे, शहीद भगत सिंह की जीवन गाथाएं इसके उदाहरण हैं। इसमें ऐसा कोई कारण नहीं कि मनुष्य अपनी दुष्प्रवृत्तियों पर नियंत्रण न कर सके। आईए, हम भी संयमशीलता एवं कर्त्तव्यपरायणता का स्वयं निर्वाह कर दूसरों को भी इस राजमार्ग पर चलने की सीख देकर मानव जीवन को सार्थक करें। यदि हमें अपनी और अपने समाज की आरोग्यता प्रिय है, यदि हम दीर्घजीवी होना चाहते हैं और अपने बच्चों को अकाल मृत्यु से ग्रस्त होने देना नहीं चाहते तो हमें संयम की प्रतिष्ठा करनी होगी। अपने निज के स्वभाव में तथा घर के वातावरण में संयमशीलता को स्थान देना पड़ेगा। असंयम से घृणा करनी होगी।

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